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तबादला कानून को शिक्षक नेता ने बताया बीमार,सीएम को भेजा पत्र,क्या शिक्षक नेता पर होगी कार्रवाई

देहरादून। उत्तराखंड में लगता है कि कई सरकारी कर्मचारी है जो अपनी उस नियमावली को भूल गए है,जिस नियमावली के बलबूते सरकार से अपनी मांगे मनवाने के लिए दबाव तो बनाते है,और सरकार मांगे भी पूरा करती है। लेकिन उसी नियमाली में कर्मचारियों के आचार व्यवहार के भी नियम बने है,जिन्हे कर्मचारी भूल गए है। खासकर उत्तराखंड शिक्षा विभाग की बात करें तो उत्तराखंड के शिक्षकों शोषल मीडिया पर जमकर पोस्ट सरकार के खिलाफ करते है,लेकिन कई शिक्षक ऐसे भी है जो सरकार के खिलाफ खुलकर लिखने या सावल खड़े करने से भी पीछे नहीं रहते है। ये बात अलग है कि किसी पर कोई बाध्यता शोसल मीडिया पर नहीं है। लेकिन एक सरकारी कर्मचारी के नाते सरकार से किस तहर अपनी मांगे को एक कर्मचारी को रखनी होती हैं भली भांती पता होना चाहिए। खास कर शिक्षक जिसे समाज में भी काफी पूजा जाता है और छात्रों के लिए भगवान से आगे ईश्वर को माना गया है। लेकिन उत्तराखंड के एक शिक्षक नेता का पत्र जो उन्होने मुख्यमंत्री को भेजा गया है वह खूब वायरल भी हो रहा है,और पत्र में जिस तहर भाषा का प्रयोग किया गया है उस पर भी कई सवाल किए जा रहे है। कि क्या एक शिक्षक को मुख्यमंत्री से अपनी बात रखने के लिए इस तरह की भाषा शोभा देती है। पहले आप उस पत्र को पढ़े जो शिक्षक के द्धारा मुख्यमंत्री को भेजा गया है।

सेवा में,

मुख्यमंत्री,

उत्तराखंड सरकार देहरादून

विषय – तबादला कानून के गंभीर बीमार होने पर संवेदना सन्देश

महोदय

यह जान कर अत्यंत ही दुःख हुआ है कि राज्य का लोकप्रिय तबादला कानून अपने जन्म से ही किसी अज्ञात गंभीर रोग से ग्रस्त होकर अब मृत्यु शैय्या पर है, मैं तबादला कानून के स्वास्थ्य के लिए भगवान बदरीनाथ सहित देवभूमि के सभी देवी-देवताओं से प्रार्थना करता विकट स्थिति में आपकी लोकप्रिय सरकार को विवेक बनाएं रखने की शक्ति दे।

सादर अभिवादन सहित,

आपका एक विनम सेवक

मुकेश प्रसाद बहगणा

राजकीय इंटर पौड़ी गढ़वाल

कॉलेज मुण्डनेश्वर.पौड़ी गढ़वाल

पत्र पढ़कर आप भी समझ गए होंगे कि आखिर पत्र की जो भाषा है,वह एक शिक्षक को शोभा नहीं देती,क्योंकि मुख्यमंत्री को पत्र अपनी मांगों को मनवाले के लिए किस तरह दिया जाता है। वह हर कोई समझता है। दूसरी बात ये है कि जिस तबादला कानून को उन्होने बीमार बताकर सवाल खड़े किए है,वह कानून उत्तराखंड की विधान सभा से पास हुआ है,और राज्यपाल की स्वीकृति के बाद वह कानून बना है। बेशक तबादला कानू के तहत कर्मचारियों की आश के मुताबित तबादले न हुए हों,लेकिन जिस कानून पर विपक्ष की भी सहमति रही हो और विपक्ष भी कर्मचारियों के ताबदले एक्ट के मुताबिक न होने पर ताबादला कानून पर सवाल न उठाता हो,उस कानून को बिमार बताने वाले शिक्षकों को यह पता होना चाहिए कि कानून कभी बिमार नहीं होता है,और न की काूनन कभी मरता है। बस कमियां महसूस होने के बाद जरूर कानूनों में बदलाव होता है। लेकिन ऐसे में सवाल ये उठाता है कि आखिर क्या शिक्षा विभाग के जिम्मेदार अधिकारी या फिर सरकार इस तरह तबादला कानून को बिमार और मृत्युशौया पर होने वाले अपशब्द वाले इस पत्र का संज्ञान लेंगे और कोई कार्रवाई इस पर होगी। क्योंकि आज कल कई जगहों पर सरकार के खिलाफ शोसल मीडिया पर प्रतिक्रिया करने वाले कर्मचारियेां को सबक भी सिखाया जा रहा है। हरिद्धार में एक शिक्षक के द्धारा पीएम पर टिप्पणी करने के आरोप में एक्कशन लिया गया है।

 कांग्रेसी शासित राज्य राजस्थान में भी एक शिक्ष के द्धारा राजनैतिक और आपत्ति जनक टिप्पणी करने पर जिला अधिकारी के द्धारा शिक्षक को सस्पेंड कर दिया गया है। ऐसे में उदाहरण अगर राजस्थान और उत्तराखंड का लिया जाएं तो साफ है राजस्था में कांग्रेस की सरकार है जहां शिक्षकों को राजनैतिक और आपत्ति जनक टिप्पणी करने पर संस्पेड किया जा रहा है। वहीं दूसरी तरह उत्तराखंड का है जहां भाजपा की सरकार है लेकिन ऐसे शिक्षकों को पर कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है जो अपनी मर्यादाएं भी भूल गए है कि उन्हे प्रदेश के मुख्यमंत्री से किस तरह और किस भाषा में पत्रचार करना चाहिए। ऐसे सवाल ये उठाता है कि क्या उत्तराखंड में कर्मचारियों पर सरकार का नियत्रंण नहीं है जो सरकारी कर्मचारी की सरकार की छवि को धुमिल कर रहे है। 
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