उत्तराखंड से बड़ी खबर

साढ़े तीन साल का कार्यकाल रहा बेदाग,तो फिर झारखंड के मामले से उत्तराखंड की अस्मिता दांव पर क्यों

 

देहरादून। मामला झारखंड का और दांव पर उत्तराखंड की अस्मिता। जी हां, अजब है पर सच है। झारखंड के एक आधारहीन मसले को उछालकर उत्तराखंड में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने की कोशिशें तीन साल से चल रही हैं। जब भ्रष्टाचार को कुचला जाता है, दलालों की दुकानें बंद हो जाती हैं, राजनेता हाथ धोकर कुर्सी के पीछे पड़ जाते हैं तो जनता का हित और राज्य की छवि तक दांव पर लग जाती है। कुछ ऐसी ही परिस्थितियों से इस वक़्त उत्तराखंड गुजर रहा है।  मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत को कुर्सी से हटाने के चौतरफा प्रयास हो रहे हैं। इस पॉवर गेम में अपने और पराये वो सभी लोग शामिल हैं जो उत्तराखंड में भ्रष्टाचार पर लगे अंकुश से तिलमिलाए बैठे हैं। विघ्नसंतोषियों की ये जमात किसी भी कीमत पर त्रिवेन्द्र सिंह रावत से मुख्यमंत्री का पद छीनना चाहती है। वो भी तब जबकि अब तक का साढ़े तीन वर्ष का मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र का कार्यकाल बेदाग होने के साथ ही तमाम उपलब्धियों से भरा रहा है। तलाशने पर भी उनके खिलाफ अवैध कारोबार, धन का दुरुपयोग और पैसे की वसूली का कोई मामला नहीं मिल रहा है। घुमा -फिराकर पांच साल पहले के एक मुद्दे को बार-बार नए तरीक़े से पेश कर उनकी घेराबंदी के कोशिशें की जाती हैं। दरसअल, 18 मार्च 2017 को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही त्रिवेन्द्र ने भ्रष्टाचार को लेकर ‘ज़ीरो टॉलरेन्स’ का कड़ा संदेश दिया था। एनएच घोटाला, उर्जा निगम में हुईं अनियमितता, जल निगम के एमडी पर कार्रवाई, पीडब्लूडी और सिंचाई विभाग के दर्जनों इंजीनियरों का निलंबन, न जाने ऐसे कितने उदाहरण हैं जिनसे त्रिवेन्द्र ने अपनी ईमानदार मुख्यमंत्री की छवि बनाई। सचिवालय में दलालों की एंट्री बंद करने के उनके फैसले की स्वीकारोक्ति तो दबी जुबान से विपक्षी खेमा भी करता है। बाकी शिक्षा, स्वास्थ और बुनियादी सुविधाओं का त्रिवेन्द्र राज में गांव-गांव हुआ विस्तार तो सबके सामने है ही। पारदर्शी शासन, चहुँमुखी विकास और सामाजिक उत्थान के इस दौर में स्वार्थी तत्व हैरान भी हैं और परेशान भी। वो त्रिवेंद्र के खिलाफ 5 साल पुराने एक ऐसे मुद्दे को हर बार हवा में उछालते हैं, जिसका उत्तराखंड से कोई सरोकार नहीं है। आरोप लगाया जाता है कि 2015-16 में झारखंड के बीजेपी प्रभारी रहते हुए उन्होंने वहां के एक व्यक्ति से 25 लाख रुपये की रिश्वत अपने नाते रिश्तेदारों के बैंकखातों के जरिये ली। इस मामले की एसआईटी जाँच में इन आरोपों को निराधार पाया गया है। उल्टा, इस मामले में हरेंद्र रावत नाम के जिस व्यक्ति की पत्नी के खाते में पैसा डाले जाने के आरोप लगाए गए थे, उसने ही नेहरू कॉलोनी थाने में आरोप लगाने वालों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवा दिया था। इस मुकदमे में हाई कोर्ट का फैसला हैरान करने वाला आया। मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र ने कोर्ट के सीबीआई जांच वाले आदेश का सम्मान करने की बात कही है। कोर्ट के इस आदेश से जांच होने पर दूध का दूध-पानी का पानी हो जाएगा लेकिन ये भी सोचना होगा कि निजी स्वार्थ के चलते कैसे कुछ राजनेता और भ्रष्टाचारी प्रदेश की छवि तक दांव पर लगा देते हैं। जरा सोचिये! 5 साल पुराने ऐसे मामले में जो उत्तराखंड में घटित नहीं हुआ उसके बूते कैसे उत्तराखंड में सियासी अस्थिरता फैलाने की कोशिशें हो रही हैं। उस समय त्रिवेंद्र भाजपा के झारखण्ड प्रभारी थे। सवाल यह है कि जब तक त्रिवेन्द्र मुख्यमंत्री नहीं थे तो तब तक ये मुद्दा क्यों नहीं उठाया गया। तब उनके खिलाफ झारखंड या उत्तराखंड में मुकदमा दर्ज क्यों नहीं किया गया। उस वक़्त तो वे सीएम नहीं थे, आसानी से उन पर कार्रवाई हो सकती थी। ऐसा इसलिये नहीं किया गया क्योंकि त्रिवेन्द्र के खिलाफ पुलिस कार्रवाई नहीं बल्कि उन्हें मुख्यमंत्री के पद से हटाना असल मकसद है। उत्तराखंड की कमान फिर से भ्रष्टाचारियों को सौंपना इनका उद्देश्य है। इस पॉवर गेम में उत्तराखंड सुर्खियों में है। राज्य की छवि दांव पर है। जनता के मुद्दे हाशिये पर है। विकास की गति प्रभावित हो रही है। काश! ये बात विघ्नसंतोषियों की समझ में आती।

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